Lekhika Ranchi

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जयशंकर प्रसाद जी की कृतियां





Ajatashatru (Play): Jaishankar Prasa

अजातशत्रु (नाटक): जयशंकर प्रसाद

पात्र

बिम्बिसार: मगध का सम्राट्

अजातशत्रु (कुणीक): मगध का राजकुमार

उदयन: कौशाम्बी का राजा, मगध सम्राट् का जामाता

प्रसेनजित्: कोसल का राजा

विरुद्धक (शैलेन्द्र): कोसल का राजकुमार

गौतम: बुद्धदेव

सारिपुत्र: सद्धर्म के आचार्य

आनन्द: गौतम के शिष्य

देवदत्त (भिक्षु): गौतम बुद्ध का प्रतिद्वन्द्वी

समुद्रदत्त: देवदत्त का शिष्य

जीवक: मगध का राजवैद्य

वसन्तक: उदयन का विदूषक

बन्धुल: कोसल का सेनापति

सुदत्त: कोसल का कोषाध्यक्ष

दीर्घकारायण: सेनापति बन्धुल का भांजा, सहकारी सेनापति

लुब्धक: शिकारी

(काशी का दण्डनायक, अमात्य, दूत, दौवारिक और अनुचरगण)

वासवी: मगध-सम्राट् की बड़ी रानी

छलना: मगध-सम्राट् की छोटी रानी और राजमाता

पद्मावती: मगध की राजकुमारी

मागन्धी (श्यामा): आम्रपाली

वासवदत्ता: उज्जयिनी की राजकुमारी

शक्तिमती (महामाया): शाक्यकुमारी, कोसल की रानी

मल्लिका: सेनापति बन्धुल की पत्नी

बाजिरा: कोसल की राजकुमारी

नवीना: सेविका

(विजया, सरला, कंचुकी, दासी, नर्त्तकी इत्यादि)

प्रथम अंक-अजातशत्रु

प्रथम अंक : प्रथम दृश्य

स्थान - प्रकोष्ठ

राजकुमार अजातशत्रु , पद्मावती , समुद्रदत्त और शिकारी लुब्धक।

अजातशत्रु : क्यों रे लुब्धक! आज तू मृग-शावक नहीं लाया। मेरा चित्रक अब किससे खेलेगा

समुद्रदत्त : कुमार! यह बड़ा दुष्ट हो गया है। आज कई दिनों से यह मेरी बात सुनता ही नहीं है।

लुब्धक : कुमार! हम तो आज्ञाकारी अनुचर हैं। आज मैंने जब एक मृग-शावक को पकड़ा, तब उसकी माता ने ऐसी करुणा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा कि उसे छोड़ ही देते बना। अपराध क्षमा हो।

अजातशत्रु : हाँ, तो फिर मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ता हूँ। समुद्र! ला तो कोड़ा।

समुद्रदत्त : ( कोड़ा लाकर देता है ) लीजिए। इसकी अच्छी पूजा कीजिए।

पद्मावती : ( कोड़ा पकड़कर ) भाई कुणीक! तुम इतने दिनों में ही बड़े निष्ठुर हो गए। भला उसे क्यों मारते हो?

अजातशत्रु : उसने मेरी आज्ञा क्यों नहीं मानी?

पद्मावती : उसे मैंने ही मना किया था, उसका क्या अपराध?

समुद्रदत्त : ( धीरे से ) तभी तो उसको आजकल गर्व हो गया। किसी की बात नहीं सुनता।

अजातशत्रु : तो इस प्रकार तुम उसे मेरा अपमान करना सिखाती हो?

पद्मावती : यह मेरा कर्त्तव्य है कि तुमको अभिशापों से बचाऊँ और अच्छी बातें सिखाऊँ। जा रे लुब्धक, जा, चला जा। कुमार जब मृगया खेलने जायँ, तो उनकी सेवा करना। निरीह जीवों को पकड़कर निर्दयता सिखाने में सहायक न होना।

अजातशत्रु : यह तुम्हारी बढ़ाबढ़ी मैं सहन नहीं कर सकता।

पद्मावती : मानवी सृष्टि करुणा के लिए है, यों तो क्रूरता के निदर्शन हिंस्र पशुजगत् में क्या कम हैं?

समुद्रदत्त : देवि! करुणा और स्नेह के लिए तो स्त्रियाँ जगत् में हुई हैं, किन्तु पुरुष भी क्या वही हो जाएँ?

पद्मावती : चुप रहो, समुद्र! क्या क्रूरता ही पुरुषार्थ का परिचय है? ऐसी चाटूक्तियाँ भावी शासक को अच्छा नहीं बनातीं।

छलना का प्रवेश।

छलना : पद्मावती! यह तुम्हारा अविचार है। कुणीक का हृदय छोटी-छोटी बातों में तोड़ देना, उसे डरा देना, उसकी मानसिक उन्नति में बाधा देना है।

पद्मावती : माँ! यह क्या कह रही हो! कुणीक मेरा भाई है, मेरे सुखों की आशा है, मैं उसे कर्त्तव्य क्यों न बताऊँ? क्या उसे चाटुकारों की चाल में फँसते देखूँ और कुछ न कहूँ!

छलना : तो क्या तुम उसे बोदा और डरपोक बनाना चाहती हो? क्या निर्बल हाथों से भी कोई राजदण्ड ग्रहण कर सकता है?

पद्मावती : माँ! क्या कठोर और क्रूर हाथों से ही राज्य सुशासित होता है? ऐसा विष-वृक्ष लगाना क्या ठीक होगा? अभी कुणीक किशोर है, यही समय सुशिक्षा का है। बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कँटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे।

अजातशत्रु : फिर तुमने मेरी आज्ञा क्यों भंग होने दी? क्या दूसरे अनुचर इसी प्रकार मेरी आज्ञा का तिरस्कार करने का साहस न करेंगे?

छलना : यह कैसी बात?

अजातशत्रु : मेरे चित्रक के लिए जो मृग आता था, उसे ले आने के लिए लुब्धक को रोक दिया गया। आज वह कैसे खेलेगा?

छलना : पद्मा! तू क्या इसकी मंगल-कामना करती है? इसे अहिंसा सिखाती है, जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है? जो राजा होगा, जिसे शासन करना होगा, उसे भिखमंगों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। राजा का परम धर्म न्याय है, वह दण्ड के आधार पर है। क्या तुझे नहीं मालूम कि वह भी हिंसामूलक है?

पद्मावती : माँ! क्षमा हो। मेरी समझ में तो मनुष्य होना राजा होने से अच्छा है।

छलना : तू कुटिलता की मूर्ति है। कुणीक को अयोग्य शासक बनाकर उसका राज्य आत्मसात करने के लिए कौशाम्बी से आई है।

पद्मावती : माँ! बहुत हुआ, अन्यथा तिरस्कार न करो। मैं आज ही चली जाऊँगी!

वासवी का प्रवेश।

वासवी : वत्स कुणीक! कई दिनों से तुमको देखा नहीं। मेरे मन्दिर में इधर क्यों नहीं आए? कुशल तो है?

अजात के सिर पर हाथ फेरती है।

अजातशत्रु : नहीं माँ, मैं तुम्हारे यहाँ न आऊँगा, जब तक पद्मा घर न जाएगी।

वासवी : क्यों? पद्मा तो तुम्हारी ही बहन है। उसने क्या अपराध किया है? वह तो बड़ी सीधी लड़की है।

छलना : ( क्रोध से ) वह सीधी और तुम सीधी! आज से कभी कुणीक तुम्हारे पास न जाने पावेगा, और तुम भी यदि भलाई चाहो तो प्रलोभन न देना।

वासवी : छलना! बहन!! यह क्या कह रही हो? मेरा वत्स कुणीक! प्यारा! कुणीक! हा भगवान! मैं उसे देखने न पाऊँगी। मेरा क्या अपराध...

अजातशत्रु : यह पद्मा बार-बार मुझे अपदस्थ किया चाहती है, और जिस बात को मैं कहता हूँ उसे ही रोक देती है।

वासवी : यह मैं क्या देख रही हूँ। छलना! यह गृह-विद्रोह की आग तू क्यों जलाना चाहती है? राज-परिवार में क्या सुख अपेक्षित नहीं है-

बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उसके मन में,

कुल-लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसके जीवन में!

बन्धुवर्ग हों सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,

शान्तिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर?

छलना : यह सब जिन्हें खाने को नहीं मिलता, उन्हें चाहिए। जो प्रभु हैं, जिन्हें पर्याप्त है; उन्हें किसी की क्या चिन्ता-जो व्यर्थ अपनी आत्मा को दबावें।

वासवी : क्या तुम मेरा भी अपमान किया चाहती हो? पद्मा तो जैसी मेरी, वैसी ही तुम्हारी! उसे कहने का तुम्हें अधिकार है। किन्तु तुम तो मुझसे छोटी हो, शील और विनय का यह दुष्ट उदाहरण सिखाकर बच्चों की क्यों हानि कर रही हो?

छलना : ( स्वगत ) मैं छोटी हूँ, यह अभिमान तुम्हारा अभी गया नहीं। (प्रकट) छोटी हूँ, या बड़ी; किन्तु राजमाता हूँ। अजात को शिक्षा देने का मुझे अधिकार है। उसे राजा होना है। वह भिखमंगों का-जो अकर्मण्य होकर राज्य छोड़कर दरिद्र हो गए हैं-उपदेश नहीं ग्रहण करने पावेगा।

पद्मावती : माँ! अब चलो, यहाँ से चलो! नहीं तो मैं ही जाती हूँ।

वासवी : चलती हूँ, बेटी! किन्तु छलना-सावधान! यह असत्य गर्व मानव-समाज का बड़ा भारी शत्रु है।

पद्मावती और वासवी जाती हैं।

प्रथम अंक : द्वितीय दृश्य

महाराज बिम्बिसार एकाकी बैठे हुए आप - ही - आप कुछ विचार रहे हैं।

बिम्बिसार : आह, जीवन की क्षणभंगुरता देखकर भी मानव कितनी गहरी नींव देना चाहता है। आकाश के नीले पत्र पर उज्ज्वल अक्षरों से लिखे अदृष्ट के लेख जब धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं, तभी तो मनुष्य प्रभात समझने लगता है, और जीवन-संग्राम में प्रवृत्त होकर अनेक अकाण्ड-ताण्डव करता है। फिर भी प्रकृति उसे अन्धकार की गुफा में ले जाकर उसका शान्तिमय, रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयत्न करती है; किन्तु वह कब मानता है? मनुष्य व्यर्थ महत्त्व की आकांक्षा में मरता है; अपनी नीची, किन्तु सुदृढ़ परिस्थिति में उसे सन्तोष नहीं होता; नीचे से ऊँचे चढ़ना ही चाहता है, चाहे गिरे तो भी क्या?

छलना : ( प्रवेश करके ) और नीचे के लोग वहीं रहें! वे मानो कुछ अधिकार नहीं रखते? ऊपरवालों का यह क्या अन्याय नहीं है

बिम्बिसार : ( चौंककर ) कौन, छलना?

छलना : हाँ, महाराज! मैं ही हूँ।

बिम्बिसार : तुम्हारी बात मैं नहीं समझ सका?

छलना : साधारण जीवों में भी उन्नति की चेष्टा दिखाई देती है। महाराज! इसकी किसको चाह नहीं है। महत्त्व का यह अर्थ नहीं कि सबको क्षुद्र समझे।

बिम्बिसार : तब?

छलना : यही कि मैं छोटी हूँ, इसलिए पटरानी नहीं हो सकी, और वासवी मुझे इसी बात पर अपदस्थ किया चाहती है।

बिम्बिसार : छलना! यह क्या! तुम तो राजमाता हो। देवी वासवी के लिए थोड़ा-सा भी सम्मान कर लेना तुम्हें विशेष लघु नहीं बना सकता-उन्होंने कभी तुम्हारी अवहेलना भी तो नहीं की।

छलना : इन भुलावों में मैं नहीं आ सकती। महाराज! मेरी धमनियों में लिच्छवि रक्त बड़ी शीघ्रता से दौड़ता है। यह नीरव अपमान, यह सांकेतिक घृणा, मुझे सह्य नहीं और जबकि खुलकर कुणीक का अपकार किया जा रहा है, तब तो...

बिम्बिसार : ठहरो! तुम्हारा यह अभियोग अन्यायपूर्ण है। क्या इसी कारण तो बेटी पद्मावती नहीं चली गई? क्या इसी कारण तो कुणीक मेरी भी आज्ञा सुनने में आनाकानी नहीं करने लगा है? कैसा उत्पात मचाना चाहती हो?

छलना : मैं उत्पात रोकना चाहती हूँ। आपको कुणीक के युवराज्याभिषेक की घोषणा आज ही करनी पड़ेगी।

वासवी : ( प्रवेश करके ) नाथ, मैं भी इससे सहमत हूँ। मैं चाहती हूँ कि यह उत्सव देखकर और आपकी आज्ञा लेकर मैं कोसल जाऊँ। सुदत्त आज आया है, भाई ने मुझे बुलाया है।

बिम्बिसार : कौन, देवी वासवी!

छलना : हाँ, महाराज!

कंचुकी : ( प्रवेश करके ) महाराज! जय हो! भगवान् तथागत गौतम आ रहे हैं।

बिम्बिसार : सादर लिवा लाओ। ( कंचुकी का प्रस्थान ) छलना! हृदय का आवेग कम करो, महाश्रमण के सामने दुर्बलता न प्रकट होने पावे।

अजात को साथ लिए हुए गौतम का प्रवेश। सब नमस्कार करते हैं।

गौतम : कल्याण हो। शान्ति मिले!!

बिम्बिसार : भगवन्, आपने पधारकर मुझे अनुगृहीत किया।

गौतम : राजन्! कोई किसी को अनुगृहीत नहीं करता। विश्वभर में यदि कुछ कर सकती है तो वह करुणा है, जो प्राणिमात्र में समदृष्टि रखती है-

गोधूली के राग-पटल में स्नेहांचल फहराती है।

स्निग्ध उषा के शुभ्र गगन में हास विलास दिखाती है।।

मुग्ध मधुर बालक के मुख पर चन्द्रकान्ति बरसाती है।

निर्निमेष ताराओं से वह ओस बूँद भर लाती है।।

निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से।

मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा करुणा से।।

बिम्बिसार : करुणामूर्ति! हिंसा से रँगी हुई वसुन्धरा आपके चरणों के स्पर्श से अवश्य ही स्वच्छ हो जाएगी। उसकी कलंक कालिमा धुल जाएगी।

गौतम : राजन्, शुद्ध बुद्धि तो सदैव निर्लिप्त रहती है। केवल साक्षी रूप से सब दृश्य देखती है। तब भी, इन सांसारिक झगड़ों में उसका उद्देश्य होता है कि न्याय का पक्ष विजयी हो-यही न्याय का समर्थन है। तटस्थ की यही शुभेच्छा सत्त्व से प्रेरित होकर समस्त सदाचारों की नींव विश्व में स्थापित करती है। यदि वह ऐसा न करे, तो अप्रत्यक्ष रूप से अन्याय का समर्थन हो जाता है-हम विरक्तों की भी इसीलिए राजदर्शन की आवश्यकता हो जाती है।

बिम्बिसार : भगवान् की शान्तिवाणी की धारा प्रलय की नरकाग्नि को भी बुझा देगी। मैं कृतार्थ हुआ।

छलना : ( नीचा सर करके ) भगवन्! यदि आज्ञा हो, तो मैं जाऊँ।

गौतम : रानी! तुम्हारे पति और देश के सम्राट् के रहते हुए मुझे कोई अधिकार नहीं है कि तुम्हें आज्ञा दूँ। तुम इन्हीं से आज्ञा ले सकती हो।

बिम्बिसार : ( घूमकर देखते हुए ) हाँ, छलने! तुम जा सकती हो; किन्तु कुणीक को न ले जाना, क्योंकि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा है।

छलना का क्रोध से प्रस्थान।

गौतम : यह तो मैं पहले ही से समझता था, किन्तु छोटी रानी के साथ अन्य को विचार से काम लेना चाहिए।

बिम्बिसार : भगवन्! हम लोगों का क्या अविचार आपने देखा?

गौतम : शीतल वाणी-मधुर व्यवहार-से क्या वन्य पशु भी वश में नहीं हो जाते? राजन्, संसार भर के उपद्रवों का मूल व्यंग्य है। हृदय में जितना यह घुसता है, उतनी कटार नहीं। वाक्-संयम विश्वमैत्री की पहली सीढ़ी है। अस्तु, अब मैं तुमसे एक काम की बात कहना चाहता हूँ। क्या तुम मानोगे-क्यों महारानी?

बिम्बिसार : अवश्य।

गौतम : तुम आज ही अजातशत्रु को युवराज बना दो और इस भीषण-भोग से कुछ विश्राम लो। क्यों कुमार, तुम राज्य का कार्य मन्त्रि-परिषद् की सहायता से चला सकोगे?

अजातशत्रु : क्यों नहीं, पिताजी यदि आज्ञा दें।

गौतम : यह बोझ, जहाँ तक शीघ्र हो, यदि एक अधिकारी व्यक्ति को सौंप दिया जाए, तो मानव को प्रसन्न ही होना चाहिए, क्योंकि राजन्, इससे कभी-न-कभी तुम हटाए जाओगे; जैसा कि विश्व-भर का नियम है। फिर यदि तुम उदारता से उसे भोगकर छोड़ दो, तो इसमें क्या दुःख-

बिम्बिसार : योग्यता होनी चाहिए, महाराज! यह बड़ा गुरुतर कार्य है। नवीन रक्त राज्यश्री को सदैव तलवार के दर्पण में देखना चाहता है।

गौतम : ( हँसकर ) ठीक है। किन्तु, काम करने के पहले तो किसी ने भी आज तक विश्वस्त प्रमाण नहीं दिया कि वह कार्य के योग्य है। यह बहाना तुम्हारा राज्याधिकार की आकांक्षा प्रकट कर रहा है। राजन्! समझ लो, इस गृह-विवाद, आन्तरिक झगड़ों से विश्राम लो।

वासवी : भगवन्! हम लोगों के लिए तो छोटा-सा उपवन पर्याप्त है। मैं वहीं नाथ के साथ रहकर सेवा कर सकूँगी।

बिम्बिसार - तब जैसी आपकी आज्ञा। (कंचुकी से) राज-परिषद् सभागृह में एकत्र हो; कञ्चुकी ! शीघ्रता करो।

(कञ्चुकी का प्रस्थान)

[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : तृतीय दृश्य

(समुद्रदत्त और देवदत्त)

देवदत्त - वत्स ! मैं तेरी कार्यवाही से प्रसन्न हूँ। हाँ फिर क्या हुआ क्या अजात का राज तिलक हो गया ?

समुद्रदत्त - शुभ मुहूर्त में सिंहासन पर बैठना ही शेष है और परिषद् का कार्य तो उनकी देख-रेख में होने लगा। कुशलता से राजकुमार ने कार्यारम्भ किया है; किन्तु गौतम यदि न चाहते यह काम सरलता से न हो सकता।

देवदत्त - फिर उसी ढकोसले वाले ढोंगी की प्रशंसा ! अरे समुद्र, यदि मैं इसकी न चेष्टा करता, तो यह सब कुछ न होता - लिच्छविकुमारी में इतना मनोबल कहाँ कि वह यों अड़ जाती !

समुद्रदत्त - तो युवराज ने आपको बुलाया है, क्योंकि रानी वासवी और महाराज बिम्बिसार सम्भवत: अपनी नवीन कुटी में चले गए होंगे। अब यह राज्य केवल राज-माता और युवराज के हाथ में है। उनकी इच्छा है कि आपके सदुपदेश से राज्य सुशासित हो।

देवदत्त - (कुछ बनता हुआ) यह झंझट भला मुझ विरक्त से कहाँ होगा। फिर भी लोकोपकार के लिए तो कुछ करना ही पड़ता है।

समुद्रदत्त - किन्तु गुरुदेव ! युवराज है बड़ा उद्धत, उसके संग रहने में भी डर मालूम पड़ता है। बिना आपकी छाया के मैं तो नहीं रह सकता।

देवदत्त - वत्स समुद्र ! तुम नहीं जानते कि कितना गुरुतर काम तुम्हारे हाथ में है। मगध-राष्ट्र का उद्धार इस भिक्षु के हाथों से करना होगा। जब राजा ही उसका अनुयायी है, फिर जनता क्यों न भाड़ में जायगी। यह गौतम बड़ा कपट-मुनि है। देखते नहीं, यह कितना प्रभावशाली होता जा रहा है; नहीं तो मुझे इन झगड़ों से क्या काम ?

समुद्रदत्त - तब क्या आज्ञा है ?

देवदत्त - गौतम का प्रभाव मगध पर से तब तक नहीं हटेगा, जब तक बिम्बिसार राजगृह से दूर न जायगा। यह राष्ट्र का शत्रु गौतम समग्र जम्बूद्वीप को भिक्षु बनाना चाहता है और अपने को उनका मुखिया। इस तरह जम्बूद्वीप भर पर एक दूसरे रूप में शासन करना चाहता है।

जीवक - (सहसा प्रवेश करके) - आप विरक्त हैं और मैं गृही। किन्तु जितना मैंने आपके मुख से अकस्मात् सुना है वहीं पर्याप्त है कि मैं आपको रोककर कुछ कहूँ। संघभेद करके आपने नियम तोड़ा है, उसी तरह राष्ट्रभेद करके क्या देश का नाश करना चाहते हैं ?

देवदत्त - यह पुरानी मण्डली का गुप्तचर है, समुद्र ! युवराज से कहो कि इसका उपाय करें। यह विद्रोही है, इसका मुख बन्द होना चाहिए।

जीवक - ठहरो, मुझे कह लेने दो। मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ कि जो बात तुमसे कहनी है, उसे मैं दूसरों से कहूं। मैं भी राजकुल का प्राचीन सेवक हूँ। तुम लोगों की यह कटु-मन्त्रणा अच्छी तरह समझ रहा हूँ। इसका परिणाम कदापि अच्छा नहीं। सावधान, मगध का अध:पतन दूर नहीं है।

(जाता है)

सदत्त - (प्रवेश करके)- आर्य समुद्रदत्तजी ! कहिए, मेरे जाने का प्रबन्ध ठीक हो गया है न ? शीघ्र कोसल पहुँच जाना मेरे लिए आवश्यक है। महारानी तो अब जाएँगी नहीं, क्योंकि मगध-नरेश ने वानप्रस्थ आश्रम का अवलम्बन किया है। फिर मैं ठहर कर क्या करूँ?

समुद्रदत्त - किन्तु युवराज ने तो अभी आपको ठहरने के लिए कहा है।

सुदत्त - नहीं, मुझे एक क्षण भी यहाँ ठहरना अनुचित जान पड़ता है, मैं इसीलिए आपको खोजकर मिला हूँ। मुझे यहाँ का समाचार कोसल में शीघ्र पहुँचाना होगा। युवराज से मेरी ओर से क्षमा माँग लीजियेगा।

(जाता है)

देवदत्त - चलो, युवराज के पास चलें। (दोनों जाते हैं)

(जाता है) [पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : चतुर्थ दृश्य

(स्थान-उपवन) (महाराज बिम्बिसार और महारानी वासवी)

बिम्बिसार - देवी, तुम कुछ समझती हो कि मनुष्य के लिए एक पुत्र का होना क्यों इतना आवश्यक समझा गया है?

वासवी - नाथ ! मैं तो समझती हूँ कि वात्सल्य नाम का जो पुनीत स्नेह है, उसी के पोषण के लिए। बिम्बिसार - स्नेहमयी ! वह भी हो सकता है, किन्तु मेरे विचार में कोई और ही बात है। वासवी - वह क्या नाथ ?

बिम्बिसार - संसारी को त्याग, तितिक्षा या विराग होने के लिए पहला और सहज साधन है। पुत्र को समस्त अधिकार देकर वीतराग हो जाने से असन्तोष नहीं होता; क्योंकि मनुष्य अपनी ही आत्मा को भोग उसे भी समझता है।

वासवी - मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको अधिकार से वंचित होने का दु:ख नहीं।

बिम्बिसार - दुख तो नहीं, देवि ! फिर भी

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